Saturday, 30 July 2011

एक पंछी ढूंढता है फिर बसेरा

एक पंछी ढूंढता है
 फिर बसेरा ........


कल यहीं था आशियाना ,
कह रहा था जल्दी आना
ढूंढता वो फिर रहा है ,
अपना बचपन ,घर पुराना
तोडा जीने ,
क्यूँ न उसका मन झकोरा
एक पंछी ढूंढता है
फिर बसेरा...........


अब न वो रातें हैं अपनी ,
अब न वो बातें हैं अपनी
हम ही थे खुदगर्ज हमने ,
खुद ही लूटी दुनिया अपनी
कुय कहें ,
क्यूँ खो गया अपना सवेरा
एक पंछी ढूंढता है,
फिर बसेरा..........


उसने तो जीवन दिया था,
सांसों में भी दम दिया था
आसमां हो या ज़मी से ,
दाम न उसने लिया था
हमने फिर,
क्यूँ चुन लिया खुद ही अँधेरा
एक पंछी ढूंढता है ,
फिर बसेरा..........


३०.०४.२००९

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